इस शख्स को न डीजल चाहिए, न गैस… खाना बनाने से लेकर वाहन चलाने में करते हैं गोबर का कमाल

इस शख्स को न डीजल चाहिए, न गैस… खाना बनाने से लेकर वाहन चलाने में करते हैं गोबर का कमाल

आशीष कुमार/पश्चिम चम्पारण.

रसोई घर में एलपीजी एवं वाहनों में पेट्रोल या डीजल का इस्तेमाल तो सब करते हैं. लेकिन क्या आपने कभी किसी ऐसे शख्स के बारे में सुना है, जो इन सभी कामों के लिए न तो एलपीजी का इस्तेमाल करता है और न ही पेट्रोल-डीजल का ? इनका सारा काम गाय के गोबर से बनने वाले बायो फ्यूल से ही होता है. आज हम आपको एक ऐसे शख्स के बारे में बताने जा रहे हैं, जो खाना पकाने से लेकर वाहनों और जनरेटर को चलाने तक में बायो फ्यूल का इस्तेमाल करते हैं.

इतना ही नहीं, खेतों में भी ये उर्वरक की जगह गोबर से बायो फ्यूल बनाने की प्रक्रिया में तैयार हुए कंपोस्ट का ही इस्तेमाल करते हैं. खास बात यह है कि इनका दावा है कि यह भारत के पहले ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने बायो फ्यूल से ट्रैक्टर को सफलता पूर्वक चलाया है.

1968 में शुरू हुआ था बायो फ्यूल का इस्तेमाल

नरकटियागंज के बड़निहार गांव के रहने वाले विवेक पांडे का सारा काम बायो फ्यूल के ही इर्द-गिर्द घूमता है. बकौल विवेक, उनके यहां गाय के गोबर से बायो फ्यूल बनाने का काम 1968 से चला आ रहा है. दरअसल, उनके दादाजी ने 1968 में बायो फ्यूल का इस्तेमाल शुरू किया. इसके बाद से अब तक यह काम चलता ही आ रहा है. विवेक ने इसे 2014 में शुरू किया.

क्या है विवेक पांडे का दावा ?

विवेक पांडे का दावा है कि उन्होंने 2014 में भारत में पहली बार बायो फ्यूल से सफलता पूर्वक ट्रैक्टर को चलाया. जिसे उस वक्त पेपर में प्रकाशित भी किया गया था. अब वे देश के अलग-अलग राज्यों ने जाकर बायो फ्यूल प्लांट बैठाने का काम करते हैं. बायो फ्यूल के उत्सर्जन में अबतक कुल 22 से 24 लाख रुपए खर्च किए हैं. उत्सर्जन में सोलर के इस्तेमाल से इनकी लागत में अच्छी बचत होगी.

क्या है बायो फ्यूल तैयार करने की प्रक्रिया

विवेक ने बताया कि बायो फ्यूल के निर्माण के लिए उन्हें गोबर की आवश्यकता पड़ती है. उनके यहां शुरू से गो पालन किया जाता है, जिससे गोबर मिल जाता है, साथ ही पूरे गांव के गोपालकों से भी गोबर खरीदा भी जाता है. इकट्ठा किए गए गोबर को नालों के जरिए एक बड़े से कुंए में भेजा जाता है. जहां इसके सड़ने की प्रक्रिया होती है. गोबर के सड़ने पर तीन प्रकार के गैस का उत्सर्जन होता है, जो मिथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड का मिश्रण होता है. सड़े गोबर से उत्सर्जित यह गैस बड़े से बलून में स्टोर होता है. जिसे पाइप के जरिए प्यूरीफायर में पहुंचाया जाता है. प्यूरीफायर में जाने के बाद कार्बन और हाइड्रोजन सल्फाइड अलग हो जाता है. बच जाता है मिथेन और मॉइश्चर. इन्हें पाइप के जरिए कंप्रेशर में भेजकर मिथेन को मॉइश्चर से अलग कर किया जाता है. इस प्रकार स्टोर किए गए मिथेन को बड़े-बड़े सिलेंडर में भरकर खाना पकाने, वाहनों और जेनसेट को चलाने में इस्तेमाल किया जाता है.

इतना आता है प्रति केजी खर्च

विवेक ने बताया कि गोबर से बायो फ्यूल का निर्माण महज़ 6 घंटे में हो जाता है.इसके निर्माण में प्रति केजी 8 से 10 रूपए का खर्च आता है. इसमें इलेक्ट्रिसिटी बिल के साथ गोबर की कीमत तथा अन्य सभी कॉस्ट शामिल हैं.खास बात यह है कि फ्यूल के निर्माण में निकले कंपोस्ट को प्रति ट्रॉली दो हज़ार रुपए की कीमत पर बेचा भी जा सकता है.जहां तक बात बायो फ्यूल से ट्रैक्टर के चलने का है, तो हर ट्रैक्टर पर 8 लीटर के 4 सिलेंडर लगे रहते हैं, जिससे 3 हेक्टेयर खेतों की जुताई आसानी से की जा सकती है.बकौल विवेक,पेट्रोल डीजल पर निर्भर रहने वाले एक आम किसान की तुलना में बायो फ्यूल से कार्य करने वाला किसान 75 प्रतिशत तक अधिक मुनाफे में रहता है.

hindi.news18.com

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